न्यूज़ डेस्क: भारत और पाकिस्तान के बीच मई से जुलाई 1999 के बीच कश्मीर के करगिल जिले में हुए सशस्त्र संघर्ष का नाम ‘कारगिल युद्ध’ है। जिसे ऑपरेशन विजय के नाम से भी जाना जाता है। इस युद्ध में भारत की जीत हुई थी। हजारों सैनिकों ने य़ुद्ध में अपने प्राणों को देश के नाम न्योछावर कर दिया था। हम कैप्टन विक्रम बत्रा की कहानी और कारगिल संघर्ष में भारत की जीत में उनके योगदान की दास्तां आपको बताने जा रहे हैं। कैप्टन विक्रम बत्रा को उनकी वीरता के लिए मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
कैप्टन बत्रा की कहानी
कैप्टन बत्रा ने युद्ध में निडर होकर भारत के लिए लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी। वह उस समय केवल 24 वर्ष के थे और उन्हें मरणोपरांत सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म शिक्षक के परिवार में हुआ था, उनके पिता एक सरकारी स्कूल के प्रिंसिपल और उनकी माँ एक स्कूल टीचर थीं। बत्रा अपने स्कूल के समय में विशेष रूप से टेबल टेनिस खेलते थे। उन्हें कराटे का भी शौक था। विक्रम का बचपन से ही सपना था कि वह बड़े होकर इंडियन आर्मी ज्वाइन करेंगे। हिमाचल प्रदेश के पालमपुर में जन्मे कैप्टन बत्रा का एक जुड़वां भाई और दो बहनें थीं।
बचपन से ही सेना में भर्ती होना चाहते थे विक्रम
स्कूल खत्म करने के बाद विक्रम बत्रा ने डीएवी कॉलेज (चंडीगढ़) में एडमिशन लिया और फिर ग्रेजुएशन के लिए पंजाब विश्वविद्यालय चले गये। ग्रेजुएशन के साथ वह भारतीय सेना में जाने की तैयारी कर रहे थे। उन्हें बचपन से ही इंडियन आर्मी में जाना था। कहते है कि बत्रा को मर्चेंट नेवी में शामिल होने के लिए हांगकांग में मुख्यालय वाली एक शिपिंग कंपनी से भी एक प्रस्ताव मिला था लेकिन बत्रा ने प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और इसके बजाय पंजाब विश्वविद्यालय में एमए अंग्रेजी पाठ्यक्रम में दाखिला लिया, ताकि वे संयुक्त रक्षा सेवा (सीडीएस) परीक्षा की तैयारी कर सकें।
लाखों की नौकरी को छोड़कर सेना में भर्ती हुए थे विक्रम
बत्रा ने सीडीएस परीक्षा दी और 1996 में इलाहाबाद में सेवा चयन बोर्ड (एसएसबी) द्वारा उनका चयन किया गया। मेरिट के क्रम में बत्रा शीर्ष 35 भर्तियों में शामिल थे। अपने एमए पाठ्यक्रम में एक वर्ष पूरा करने के बाद, बत्रा देहरादून में भारतीय सैन्य अकादमी (आईएमए) में शामिल हो गए और मानेकशॉ बटालियन का हिस्सा थे। उन्होंने 19 महीने का कठोर प्रशिक्षण पाठ्यक्रम पूरा किया और 13वीं बटालियन, जम्मू और कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के रूप में भारतीय सेना में शामिल हुए। जबलपुर, मध्य प्रदेश में अतिरिक्त प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद, उन्होंने अपनी पहली पोस्टिंग सोपोर, बारामूला में प्राप्त की। उनकी पहली पोस्टिंग जम्मू-कश्मीर राइफल्स की 13वीं बटालियन में थी। उसी रेजिमेंट ने बाद में पाकिस्तानी सैनिकों से मुकाबला किया, जिन्होंने नियंत्रण रेखा (एलओसी) के साथ कारगिल में भारतीय चौकियों में घुसपैठ की थी।
साथी की जान बचाने के लिए अपनी जान दी
कारगिल के युद्ध के दौरान कैप्टन बत्रा के लिए सबसे कठिन मिशन पॉइंट 4875 पर कब्जा करना बताया गया था। कैप्टन बत्रा को “शेरशाह” कोडनेम दिया गया था, जिसे उन्होंने भारतीय सशस्त्र बलों की जीत सुनिश्चित करके सही भी साबित किया। ‘शेरशाह’ के अलावा उन्हें “टाइगर ऑफ़ द्रास”,”लायन ऑफ़ कारगिल” और “कारगिल हीरो” के रूप में भी याद किया जाता है।
कैप्टन बत्रा ने छुड़ा दिए थे दुश्मन के छक्के
करगिल युद्ध के दौरान जो सैनिक बत्रा की टीम में थे वह बताते हैं कि कैप्टन बत्रा ने माइनस शून्य तापमान और थकान के बावजूद दल का नेतृत्व किया था वह बहुत ही बहादुरी और सूझबूझ के साथ अपनी टीम को निर्देश दे रहे थे। उनके सहयोगी उनकी बहादुरी और साहस की कहानियों को याद करते हैं। कहा जाता है कि उन्होंने युद्ध के दौरान कम से कम चार पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया था। 7 जुलाई को मिशन लगभग पूरा हो गया था। लेकिन कैप्टन बत्रा एक अन्य अधिकारी लेफ्टिनेंट नवीन अनाबेरू को बचाने के लिए अपने बंकर से बाहर निकल आए, जिन्हें एक विस्फोट के दौरान उनके पैरों में गंभीर चोटें आई थीं। अपने सहयोगी को बचाने के क्रम में कैप्टन बत्रा ने खुद दुश्मन की गोली खा ली। कहते हैं कि जब विक्रम बत्रा अपनी टीम के साथ मिशन पर निकले थे तब उन्होंने जीतकर आने की कसम खाई थी।