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Saturday, April 20, 2024

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G-23 कांग्रेस के लिए 1969 वाला सिंडीकेट नहीं है और ना ही राहुल, इंदिरा गांधी हैं

न्यूज़ डेस्क: नेपोलियन बोनापार्ट ने 1851 में खुद को फ्रांस का राजा घोषित किया था। उसके आदर्श पूर्व राजा नेपोलियन थे। इस पर टिप्पणी करते हुए कार्ल मार्क्स ने एक बार कहा था कि इतिहास खुद को दोहराता है, पहली बार त्रासदी के रूप में और दूसरी बार हास्य से भरे नाटक के रूप में। कांग्रेस ने मार्क्स को गलत साबित कर दिया है। वो अपना ही इतिहास दोहरा रहे हैं, लेकिन त्रासदी वाले हिस्से को छोड़ हास्य से भरे नाटक के रूप में। गुलाम नबी आजाद के इस्तीफे के बाद राहुल समर्थक सोशल मीडिया पर क्या कह रहे हैं, अगर आप सुनेंगे तो पाएंगे कि वे ओल्ड गार्ड्स को बाहर करने की बात कर रहे हैं। उनका सुझाव है कि ये ही, कांग्रेस के तंग होते हाथ के लिए जिम्मेदार हैं। उनका मानना है कि समय आ गया है कि पार्टी को इन ओल्ड गार्ड्स से मुक्त किया जाए और एक नई, अधिक युवा कांग्रेस का निर्माण किया जाए।

क्या जी-23 गुट कांग्रेस का नया सिंडिकेट है?

कांग्रेस में जो भी कुछ आज देखने को मिल रहा है, उसमें कुछ भी नया नहीं है। ये बिल्कुल उसी तरह का घटनाक्रम है जब सत्तर के दशक में कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गई थी। प्रधानमंत्री पद के लिए शास्त्री के बरक्स उम्मीदवार रह चुके मोरारजी देसाई का नाम सबसे आगे था। लेकिन, उस समय पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी का नाम आगे किया और नेहरू परिवार को तवज्जो दिए जाने की परंपरा शुरू हुई। 1968/69 में कांग्रेस के पुराने नेताओं के एक समूह ने इंदिरा गांधी को प्रधान मंत्री पद से हटाने के तरीकों की तलाश शुरू कर दी थी। नवंबर 1969 के दौर में राष्ट्रपति चुनाव के दौरान वरिष्ठ नेता और इंदिरा गांधी के मतभेद खुलकर सामने आए। कांग्रेस का नेतृत्व जिसे तब सिंडिकेट के रूप में जाना जाता था उसने पीएम होने के बावजूद इंदिरा को पार्टी से निकाल दिया था। इससे उनका करियर समाप्त हो जाना चाहिए था और उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में इस्तीफा देने के लिए मजबूर हो जाना चाहिए था। लेकिन इंदिरा सिंडीकेट के नेताओं से ज्यादा चालाक थीं। उन्होंने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया और कांग्रेस को ही दो भाग में विभाजित कर दिया। चूँकि वह अपने साथ केवल कांग्रेस संसदीय दल का एक अंश ही ले जाने में कामयाब हो पाईं थीं। इसलिए लोकसभा में बहुमत से भी इंदिरा कांग्रेस दूर हो गई। लेकिन वह कम्युनिस्टों जैसे सहयोगियों के समर्थन ने उन्हें बचा लिया। बाद में एक प्रारंभिक मध्यावधि चुनाव हुए। सिंडिकेट ने कांग्रेस संगठन पर कब्जा कर लिया। कांग्रेस के इस धड़े को कांग्रेस (ओ) कहा गया और इसने अन्य दलों (स्वतंत्र, जनसंघ, ​​आदि) के साथ गठबंधन किया। लेकिन इंदिरा ने भारी जीत हासिल की और सिंडिकेट का प्रभाव और राजनीति हमेशा के लिए खत्म हो गया। उसके बाद तो कांग्रेस में ऐसा दौर देखने को मिला जैसी की ये गांधी परिवार की निजी संपत्ति हो गई। यही वो प्रकरण है जिसका राहुल गांधी के समर्थक कुछ जानबूझकर, कई अनजाने में हवाला देते हैं। उनकी नजर में जी-23 नया सिंडिकेट है। गुलाम नबी, आनंद शर्मा और बाकी जैसे कांग्रेस के पुराने नेता उसका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। राहुल अपनी दादी की तरह नए नेताओं के साथ नई कांग्रेस बनाएंगे।

कोई तुलना नहीं हो सकती

राहुल गांधी और इंदिरा गांधी के बीच कोई तुलना नहीं की जा सकती। इंदिरा गांधी भारत की अब तक की सबसे चतुर राजनेताओं में से एक थीं। वो एक नई कांग्रेस बनाने में सक्षम थीं। उसकी उंगली भारतीय गणतंत्र की नब्ज पर रहती थी। जब उन्होंने गलती की (आपातकाल लगाकर) और जनता सरकार द्वारा बाद में दवाब में लाने की कोशिश की गई तो वह जानती थी कि भारत को फिर से कैसे जीता जा सकता है। आपातकाल के बाद की अपनी हार के तीन साल से भी कम समय के बाद 1980 में उन्होंने एक नए आम चुनाव को आसानी से जीत लिया। इसके विपरीत राहुल गांधी जो कुछ भी हैं, वह निश्चित रूप से चतुर नहीं हैं। नई कांग्रेस बनाने में सक्षम होने की बात तो दूर, वह उसे नष्ट कर रहे हैं जो उन्हें विरासत में मिली है। इंदिरा ने सिंडिकेट के साथ बेवजह लड़ाई नहीं की। उन्होंने ऐसा किया क्योंकि पार्टी चलाने वाले ओल्ड गार्ड्स चाहते थे कि वो उनकी कठपुतली के रूप में राम मनोहर लोहिया के शब्दों में कहे तो गूंगी गुड़िया के रूप में काम करे। लेकिन आज की कांग्रेस में गांधी नाम मेरो मन अनत कहां सचु पावै, जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पर आवे की भांति आज्ञाकारिता का दूसरा नाम है। आलम ये है कि पार्टी नेतृत्व से निराश हो चुके लोग भी आज राहुल के खिलाफ बोलने से हिचकिचाते हैं। इसके अलावा सिंडिकेट के खिलाफ अपनी लड़ाई को वैचारिक रूप से तैयार करने के लिए इंदिरा काफी चतुर थीं। उन्होंने कहा कि सिंडीकेट वाले पूंजीवादी हैं, जबकि वे समाजवाद के लिए लड़ रही हैं। ये दावा कमजोर भले रहा हो मगर कारगर साबित हुआ। दूसरी ओर, राहुल और उनकी मंडली एक भी सैद्धांतिक मुद्दों के साथ नहीं आ पाए हैं जो उन्हें तथाकथित ओल्ड गार्ड्स से अलग करती हो।

बीजेपी और टीम मोदी के लिए मुफीद है राहुल का विपक्ष का चेहरा होना

इंदिरा जानती थीं कि कब हार माननी है। 1977 में आपातकाल के बाद की हार के बाद वो इसे खामोशी के साथ स्वीकार संतुष्ट थीं। कांग्रेस ने उनके बिना खुद को पुनर्गठित करने की कोशिश की और इंदिरा ने उन्हें ऐसा करने भी दिया। जब जनता सरकार ने उनके खिलाफ प्रतिशोध शुरू किया और उन्हें जेल भेजने की कोशिश की, तो क्या उन्होंने सक्रिय राजनीति में फिर से प्रवेश किया और वापस लड़ाई लड़ी। राहुल के मामले में परिस्थितियां इससे ठीक उलट है। राजनीति के प्रति उनसे उदासीनता वाले रवैये के बावजूद वो पार्ट टाइम पॉलिटिक्स करते हुए सक्रिय रहे। भले ही वो पार्टी से अलग रहने का दिखावा करते हो लेकिन कांग्रेस के हर बड़े फैसले में उनकी हामी की झलक दिखती रही। इसके अलावा बीजेपी की तरफ से उन्हें जेल भेजने जैसी कोई कोशिश पिछले आठ सालों में नहीं हुई। जैसा की जनता पार्टी की सरकार के दौरान इंदिरा गांधी को सामना करना पड़ा था। बल्कि राहुल का कांग्रेस की तरफ से चेहरा रहने को बीजेपी और टीम मोदी अपने लिए मुफीद ही मानती है।

सोनिया गांधी ने एक दशक तक कांग्रेस को सत्ता में बनाए रखा और पार्टी को बहुमूल्य योगदान दिया। लेकिन उनके बच्चे वो करिश्मा नहीं कायम कर पाए। वास्तव में, उन्होंने कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया है। गांधी परिवार के लिए यह स्वीकार करने और पार्टी को आगे बढ़ने का समय आ गया है। अन्यथा, आज की कांग्रेस के बारे में हम केवल यही कह सकते हैं कि उसने मार्क्स की कही बात को फिर से सही साबित करके दिखाया है कि इतिहास पहले खुद को त्रासदी के रूप में और फिर तमाशा के रूप में दोहराता है। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जिसमें यह दर्शाया या बताया गया कि वक्त के साथ-साथ चाल, चरित्र और चेहरा न बदला जाए तो फिर अस्तित्व पर उठने वाले सवालों के जवाब तलाशना मुश्किल हो जाता है। पार्टी के नेताओं को लगता है कि देश का स्वभाव कांग्रेस है इसलिए देश कांग्रेस मुक्त नहीं हो सकता लेकिन उन्हें यह नहीं ज्ञात है कि अगर आम लोगों का स्वभाव बदलने लगे तो राजनीति की शैली भी बदल देनी चाहिए।

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