साल 1993 के प्रथम त्रैमास के दिन थे। परम पूज्य गुरुदेव का महाप्रयाण हो चुका था। मन कुछ ज्यादा भारी था, कोई समस्या थी और वह भी बड़ी एवं उसका निदान अपने बस के बाहर की बात थी। सोचा, वंदनीया माताजी को पत्र में लिख भेजूं। याद है, हमने नीले रंग के अन्तर्देशीय पर पत्र लिखना शुरू किया था। हालचाल का छोटा पैरा लिखने के बाद जब विषय पर लिखना चाहा तब हम सोचने लगे- ये निजी बातें लिखकर जगज्जननी मां को क्यों परेशान किया जाय? सो अश्वमेध महायज्ञ (26-31 अक्टूबर 1993) की तैयारी सम्बन्धी कुछ और बातें लिखीं, फिर पत्र पोस्ट कर दिया।
तीन सप्ताह का समय बीता होगा, शांतिकुंज लेटर हेड पर मां का पत्र आया, जिसमें कुशलक्षेम के तीन पंक्ति के प्रथम पैरा के बाद दूसरे पैराग्राफ में लिखी बातें आज भी जब भी पढ़ता हूं, मैं रो पड़ता हूं। लिखा था – बेटा राम महेश, अपने मन के भावों को छुपाया मत करो। कहीं बच्चे अपनी मां से मन की बात छुपाते हैं? तुम बच्चों के दुख-दर्द दूर करना ही तो मेरी सबसे बड़ी तप-साधना है।
और…, जिस समस्या को हम अपनी चिट्ठी में लिख नहीं पाए थे, उसका निदान स्नेहसलिला परम वंदनीया माताजी का स्नेहाशीष-पत्र मिलने के पहले ही हो चुका था। उस समस्या एवं उसके समाधान का वृत्तान्त यहां नहीं लिख रहा हूं क्योंकि वह विषय उत्तर प्रदेश सरकार के कुछ बड़े प्रभावशाली अधिकारियों और दबंग राजनेताओं से जुड़ा हुआ है।
लखनऊ के पुराने स्वजनों को संकेत कर दूं कि यह बात तब की है जब हमारा कार्यालय निरालानगर में मुख्य मार्ग पर हुआ करता था।